Sunday 9 April 2017

प्राचीन मथुरा की खोज - 11

प्राचीन मथुरा की खोज - 11
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हम प्राचीन मथुरा की इस खोज यात्रा में अब उस पड़ाव पर आ पहुँचे हैं कि जब उस धर्म की चर्चा की जाये जिसके कारण मथुरा की प्रसिद्धि विश्व पटल पर पहुँच गई।
मथुरा की सबसे बड़ी देन है भागवत धर्म ( वैष्णव धर्म )जिस का उद्भव इसी भूमि पर हुआ ।इस के केंद्र में हैं श्रीकृष्ण,जिन्होंने मानो पूरे विश्व का मन मोह लिया ।
मथुरा में मौर्य -शुंगकाल की भागवत धर्म संबंधी मूर्तियाँ प्राप्त हुईं हैं और ईसा पूर्व पहली दूसरी शताब्दियों की मथुरा से प्राप्त अभिलेखीय सामग्री से भी भागवत धर्म की तत्कालीन स्थिति पर महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है,पर यह पुरातात्त्विक सामग्री भागवत धर्म के प्रारंभिक प्रमाण नहीं हैं,बल्कि यह साक्ष्य तो पूर्व काल से चली आ रही एक सुदीर्घ परम्परा का विकसित तथा व्यवस्थित स्वरूप प्रस्तुत करते हैं ।
वास्तव में इस काल से बहुत पहले ही भागवत धर्म मथुरा व ब्रजमंडल की सीमाओं से निकल कर संपूर्ण भारत में फैल चुका था।संभवतः यह तब हुआ होगा जब वैदिक देवता विष्णु का स्वतंत्र अस्तित्व ही वासुदेव श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व में विलीन हो गया जिसे हम ' भगवत गीता ' में समझ सकते हैं।महाभारत के शान्ति पर्व में ' नारायणीयोपाख्यान ' के अंतर्गत भी भागवत धर्म का सुन्दर विवेचन किया गया है।
संस्कृत के प्रसिद्ध ग्रंथ पाणिनीय कृत ' अष्टाध्यायी ' के व्याकरण सूत्रों से भी यह ज्ञात होता है कि वासुदेव श्रीकृष्ण की पूजा तत्कालीन भारतीय समाज में प्रचलित थी।पाणिनि का समय ईसा पूर्व पाँचवी शताब्दी के लगभग माना जाता है।
भागवत धर्म का उदय और फैलाव अपने समय की निश्चित ही एक बड़ी धार्मिक क्रान्ति थी।जिस का व्यापक प्रभाव भारतीय समाज पर ही नहीं,वरन् अनेक विदेशी जातियों पर भी पड़ा।भागवत महापुराण का श्लोक है -
किरात-हूणान्ध्र पुलिन्द पुलकसा: ।
आभीर कंका यवना: खसादय : ।।
ये न्येत्र पापा: यदुपाश्रयाश्रया : ।
शुध्यन्ति तस्यै प्रभविष्णवे नम: ।।
आप के लिए यह जानना अत्यंत रोचक होगा कि इस श्लोक के भाव की पुष्टि पुरातात्त्विक साक्ष्यों से होती है।
मध्य प्रदेश के विदिशा नगर की गणना भारत के प्रमुख प्राचीन सांस्कृतिक नगरों में की जाती है।ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में वहाँ वासुदेव श्रीकृष्ण का मन्दिर विद्यमान था।शुंग शासकों के राज्य काल में ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में इस मंदिर के सामने एक ऊँचा गरुड़ स्तंभ बनवाया गया।इस स्तंभ पर उत्कीर्ण ब्राह्मी अभिलेख से पता चलता है कि उसे तक्षशिला के यूनानी राजा ऐंटियल्काइडीज ( अंतलिकिदिस ) के राजदूत हेलियोदोर ने स्थापित किया था। हेलियोदोर ने अपने लेख के प्रारंभ में देवताओं के देव वासुदेव का नाम दिया है,जिन के प्रति भक्ति भाव प्रदर्शित करने के लिए उसने गरुड़ स्तंभ स्थापित किया।हेलियोदोर ने अभिलेख में स्वयं अपने को ' भागवत ' ( भागवत धर्म का अनुयायी) कहा है।
भागवत धर्म ने अनेक विदेशियों को प्रभावित किया और वह भारत की सीमाओं से बाहर जाकर भी फैला।
बाख्त्री -यवन शासक अगुथक्लेय जिस का समय ईसा पूर्व तीसरी सदी के लगभग माना जाता है,के कुछ चाँदी के सिक्के अफगानिस्तान की अइ खानुम नामक जगह से प्राप्त हुए हैं जिन पर एक ओर चक्रधारी और दूसरी ओर हल तथा मूसल लिए आकृतियाँ अंकित हैं।उन्हें सहज रूप से क्रमशः वासुदेव श्रीकृष्ण और संकर्षण बलराम के रूप में पहचाना जा सकता है।
श्रीकृष्ण और बलराम पहले ऐसे भारतीय देवता हैं जिनकी छवि किसी विदेशी यवन शासक ने अपने सिक्कों पर अंकित की।
आप जरा कल्पना कीजिए कि उस दौर में भागवत धर्म की लोक प्रियता का स्तर कितना ऊँचा रहा होगा।




प्राचीन मथुरा की खोज - 10

प्राचीन मथुरा की खोज - 10
---------------------------------------------------प्राचीन मथुरा को खोजने के इस प्रयास में एक प्रश्न है,जो मेरे सामने बार -बार उठ खड़ा होता है।वह यह कि मथुरा के इतिहास में मध्यकाल तक आते आते जैन और बौद्ध धर्म की इतनी समृद्ध परंपराएँ आखिर महत्त्वहीन क्यों हो गईं।
जैन धर्म के संदर्भ में तो हम यह विचार कर सकते हैं कि वह सदैव से समाज के एक विशिष्ट तथा सीमित वर्ग में ही प्रचलित रहा है,जैसा कि आज भी देखा जा सकता है,पर बौद्ध धर्म के साथ ऐसा क्या हुआ होगा कि वह मथुरा में पूर्णतः विलुप्त ही हो गया।
कुछ लोग मानते हैं कि इस का कारण भारत में इस्लाम का आगमन है।इस अवसर पर बाहर से आये आक्रमणकारी शासकों ने बड़े पैमाने पर मठों,विहारों और मन्दिरों को नष्ट किया।इन आक्रमणों से मथुरा भी अछूता नहीं रहा जिसके चलते बौद्ध धर्म यहाँ से विलुप्त हो गया।
लेकिन मैं इस धारणा से पूरी तरह सहमत नहीं हूँ,हो सकता है कि बहुत से कारणों में से यह भी एक कारण रहा हो,पर प्रमुख कारण यह नहीं हो सकता है।यदि यह सिद्धांत सही होता तो भागवत धर्म को भी उतना ही प्रभावित करता।हम देख सकते हैं कि मथुरा में मध्यकाल के दौरान प्रारंभ से लेकर अन्त तक भागवत धर्म को समाप्त करने के लिए उसके मुख्य स्थान कटरा के केशवदेव मन्दिर ( श्रीकृष्ण जन्म स्थान ) को सर्वाधिक बार तोड़ा गया,किन्तु वह हरबार उतनी ही शक्ति के साथ फिर उठ खड़ा हुआ।
लोक की स्मृति में से इतिहास के साक्ष्य बहुत जल्दी ओझल नहीं होते।वह लोक कथाओं, लोकोक्तियों,लोकअनुष्ठानों ,लोक उपासना और लोक मान्यताओं आदि में हमारी कल्पना से भी कहीं अधिक समय तक जीवित बने रह सकते हैं।बिखरे हुए सूत्रों के रूप में।
मैं लोक की स्मृति में बौद्ध धर्म संबंधी सूत्रों को खोजने का प्रयास कर रहा हूँ,लेकिन मैं अभी तक इन प्रयासों में असफल ही रहा हूँ और अब धीरे धीरे इस निष्कर्ष पर पहुँचने लगा हूँ कि बौद्ध धर्म के विहार और मठ तो बाद में नष्ट हुए,वह इससे बहुत पहले ही लोक की स्मृति में से गायब हो चुका था।यह धर्म बाद में शासकों और साम्राज्यों की छत्र छाया पर निर्भर हो गया।जब तक उनका आधार रहा।यह टिका रहा और आधार समाप्त हुआ ,तो यह भी लुप्त हो गया।
शायद इसीलिए मथुरा की लोक स्मृति में बौद्ध धर्म को लेकर एक गहरा शून्य है

प्राचीन मथुरा की खोज - 9

प्राचीन मथुरा की खोज - 9
---------------------------------------------------मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त प्रतिमाएं केवल जैन धर्म के लिए ही नहीं,वह भारतीय कला के लिए भी अनमोल निधि हैं ।मथुरा कला के विकास क्रम को समझने में यह मूर्तियाँ हमारी अत्यंत सहायक हैं ।इन में मथुरा कला की कुषाणकालीन विकासोन्मुखता तथा गुप्त युगीन मथुरा कला के पूर्ण विकसित सौष्ठव को भी देखा जा सकता है।ऐतिहासिक अध्ययन की दृष्टि से भी यह मूर्तियाँ कम मूल्यवान नहीं हैं, क्यों कि इन में से अधिकांश के पाटों पर अभिलेख उत्कीर्ण हैं जिनमें संवत्,माह ,ॠतु ,दिवस आदि दिये गये हैं।इन अभिलेखों से तत्कालीन मथुरा की जैन संघ पर बहुत अच्छा प्रकाश पड़ता है।गच्छ ,पुर और शाखाओं के जो नाम अभिलेखों में लिखे हैं,वे ही भद्रबाहु के कल्पसूत्र में आये हैं।पुरातत्व और जैन साहित्य का यह संगम अद्भुत है।
कंकाली टीले के उत्खनन से पत्थर की कुछ चौकियाँ मिलीं हैं जिन्हें 'आयाग पट्ट 'कहा जाता है।इन में शुभ चिह्नों का अंकन है।कहीं कहीं बीच में जिन आकृतियाँ बनीं रहती हैं। इन्हें तीर्थंकरों की स्मृति में पूजा के निमित्त स्थापित किया जाता था।ये उस संक्रमण काल के हैं जब प्रतीकों की उपासना प्रचलित थी और मानवाकृति के रूप में महापुरुषों की मूर्तियों का निर्माण प्रारंभ हो रहा था।इन्हें हम प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व तथा पहली शती ईस्वी के मध्य का मान सकते हैं।इन में प्रायः अष्ट मांगलिक चिह्नों जैसे मीन मिथुन, त्रिरत्न ,चैत्य वृक्ष,सराव सम्पुट ,भद्रासन ,श्रीवत्स और मंगल कलश आदि उत्कीर्ण किये जाते थे।
आयाग पट्टों में उकेरी छोटी जिन मूर्तियों का स्वतंत्र विकास तीर्थंकर प्रतिमाओं के रूप में हुआ ।यह दो मुद्राओं में मिली हैं ।पहली ध्यान भाव में आसीन और दूसरी कैवल्य की प्राप्ति के लिए दण्डवत खड़ी ।युवा सुन्दर शरीर,वक्ष पर श्रीवत्स,आजानुबाहु और प्रशांत भाव प्रमुख लक्षण हैं।
कंकाली टीले से प्राप्त यदि दिगम्बर मूर्तियाँ अधिक संख्या में हैं,तो श्वेतांबर प्रतिमाओं का भी सर्वथा अभाव नहीं है जिस से हम कह सकते हैं कि कंकाली का स्तूप जैनियों की दोनों शाखाओं में समान रूप से मान्य रहा ।
जैन आगमों को लिपिबद्ध करने के लिए प्रसिद्ध सरस्वती आन्दोलन का सूत्रपात मथुरा से ही हुआ था,जो धीरे धीरे संपूर्ण भारत में फैल गया।इस के परिणामस्वरूप प्रथम शताब्दी ईस्वी से ही जैन ग्रंथों का प्रणयन आरंभ हो गया था और अब जैन साहित्य का विपुल भण्डार उपलब्ध है।जैन ग्रंथों से ज्ञात होता है कि चौथी शताब्दी में साहित्य को सुव्यवस्थित करने के लिए आर्य स्कंदिल की अध्यक्षता में यहाँ एक सभा हुई थी जिसे' माथुरी वाचना' कहा जाता है।
यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि सरस्वती की प्राचीनतम मूर्ति कंकाली टीले से ही प्राप्त हुई है जिसमें देवी बाएँ हाथ में पुस्तक लिए है और दाहिना हाथ अभय मुद्रा में ऊपर उठा है।मूर्ति के पाट पर उत्कीर्ण अभिलेख में इसे सरस्वती की प्रतिमा ही बतलाया गया है।हम समझ सकते हैं कि मथुरा से आरंभ सरस्वती आन्दोलन को और अधिक गति देने के लिए ऐसी प्रतिमाएँ बनीं होंगी।
इस के अलावा कंकाली टीले के उत्खनन से शुंगकालीन बलराम तथा कुषाणकालीन सूर्य व कार्तिकेय की सुन्दर मूर्तियाँ भी प्राप्त हुई हैं।
यह निश्चित है कि मथुरा में श्रीकृष्ण जन्म स्थान के अलावा कंकाली ही वह स्थान है जिसका धार्मिक महत्व इतने लंबे समय तक बना रहा।
मथुरा में बौद्ध धर्म की तुलना में जैन धर्म कुछ अधिक समय तक सक्रिय रहा।कंकाली टीले से प्राप्त अवशेषों के विश्लेषण से यह ज्ञात होता है कि वह 12 वीं शताब्दी तक आबाद था,हालांकि 14 वीं शताब्दी में जिनप्रभसूरि कृत विविध तीर्थ कल्प में मथुरा के देव निर्मित इस स्तूप का उल्लेख मिलता है ,पर हम ठीक से कुछ नहीं कह सकते हैं कि आचार्य जिनप्रभसूरि ने इस स्तूप को स्वयं प्रत्यक्ष देखा था या नहीं।हो सकता है कि उन्होंने पुरानी जैन मान्यताओं के आधार पर इस का उल्लेख किया हो।
हम देखते हैं कि मथुरा में मध्यकाल की प्रारंभिक शताब्दियों तक आते -आते जैन और बौद्ध धर्मों का प्रभाव पूरी तरह समाप्त हो गया जिसके चलते कंकाली तथा मथुरा के अनेक बौद्ध धर्म संबंधी स्थान टीलों के रूप में बदल गये।
मैं अनुभव करता हूँ कि एक लम्बे समय से मथुरा में चली आ रहीं जैन और बौद्ध परंपराएँ एकदम लुप्त ही हो गईं और हालात यहाँ तक आ पहुँचे कि यदि ब्रिटिश काल में इन टीलों का पुरातात्त्विक उत्खनन नहीं होता ,तो हम कभी जान ही नहीं पाते कि प्राचीन मथुरा में जैन और बौद्ध धर्म की स्थिति क्या थी ।

Saturday 1 April 2017

प्राचीन मथुरा की खोज - 8

प्राचीन मथुरा की खोज - 8
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प्राचीन मथुरा की इस खोज यात्रा में बौद्ध धर्म के बाद जैन धर्म के संदर्भों की ओर भी ध्यान देना आवश्यक है।
मथुरा में जैन धर्म संबंधी प्राचीन मूर्तियाँ कई स्थानों से प्राप्त हुईं हैं,लेकिन यहाँ दो स्थान प्रमुख हैं जिन की प्रसिद्धि जैन तीर्थ के रूप में है।पहला है सिद्ध क्षेत्र चौरासी , जिस का संबंध महावीर के पट्ट शिष्य सुधर्माचार्य के उत्तराधिकारी जम्बू स्वामी से है।जैन मान्यताओं के अनुसार जम्बू स्वामी ने न केवल यहाँ निवास किया अपितु कैवल्य तथा मोक्ष प्राप्त कर इस स्थान को सदा के लिए सिद्ध पीठ बना दिया।
दूसरा प्रमुख स्थान है कंकाली टीला जो प्राचीनता की दृष्टि से मथुरा के लिए ही नहीं,वरन् जैन धर्म के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।ब्रिटिश काल तक यह क्षेत्र एक विस्तृत टीले के रूप में था।कंकाली देवी का एक छोटा मंदिर होने के कारण इसे ' कंकाली टीला ' कहा जाता था।सन् 1871 ईस्वी में प्रसिद्ध पुरातत्वविद् कनिंघम की नज़र इस टीले पर पड़ी ।उसने यहाँ से कई जैन प्रतिमाएं प्राप्त कीं ,लेकिन कंकाली टीले पर व्यवस्थित उत्खनन का अभियान सन् 1888-91 ईस्वी के बीच तत्कालीन लखनऊ संग्रहालय के अध्यक्ष डॉ फ्यूरर के नेतृत्व में ही चलाया जा सका ।यह मथुरा में पुरातात्त्विक उत्खनन का एक बड़ा अभियान था जिसमें कंकाली टीले से सैकड़ों प्राचीन जैन प्रतिमाएँ,भग्नावशेष ,वास्तु खंड आदि प्राप्त हुए।यह विपुल कलाराशि राज्य संग्रहालय,लखनऊ भेज दी गई और आज भी वहीं पर सुरक्षित है।लखनऊ संग्रहालय की सबसे विशाल मूर्ति जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ की है जो मथुरा के कंकाली टीले की ही देन है।दर्शकों के आकर्षण हेतु इस मूर्ति को संग्रहालय के मुख्य प्रवेश द्वार के सामने ही प्रदर्शित किया गया है।इस के अलावा राजकीय संग्रहालय,मथुरा में भी कंकाली टीले से प्राप्त जैन मूर्तियों एवं पुरा शेषों का विशाल भंडार है।इसे ध्यान में रखकर ही कई वर्ष पूर्व राजकीय संग्रहालय ने मथुरा कचहरी स्थित अपने पुराने भवन को एक स्वतंत्र 'राजकीय जैन संग्रहालय का स्वरूप प्रदान कर दिया है।जहाँ यह पुरा संपदा अब प्रदर्शित है।
कंकाली टीले के उत्खनन से दो जैन मंदिरों,पुष्करिणी तथा एक स्तूप के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
जैन साहित्य में मथुरा के एक प्रसिद्ध स्तूप का वर्णन मिलता है जिसे ' देव निर्मित स्तूप ' बतलाया गया है।कंकाली टीले के उत्खनन से प्राप्त कुषाणकालीन एक मूर्ति की पीठ पर उत्कीर्ण अभिलेख से यह ज्ञात होता है कि इस मूर्ति को देव निर्मित स्तूप में दान स्वरूप प्रतिष्ठापित किया था जिस से यह प्रमाणित होता है कि कंकाली का स्तूप ही वह स्तूप है जिसे प्राचीन जैन ग्रंथों में देव निर्मित कहा गया है।इसे देव निर्मित बताने का तात्पर्य यह है कि पहली -दूसरी शताब्दी में ही यह स्थान इतना प्राचीन माना जाता था कि इसके निर्माण का इतिहास विस्मृत हो चुका था।स्तूप की प्राचीनता के कारण ही ऐसा लगता है कि बौद्धों ने भी इस पर अधिकार करने के प्रयास किये होंगे।इसी लिए यहाँ से कुछ बौद्ध मूर्तियां भी प्राप्त हुई हैं।इस प्रसंग की 'व्यवहार सूत्र -भाष्य ' में एक रोचक कथा मिलती है कि बौद्ध लोग उसे अपना कह कर जैन स्तूप पर दखल करना चाहते थे।छह माह तक विवाद चला।तब राजा ने जैन संघ के पक्ष में निर्णय दिया ।
जिनप्रभ सूरि कृत ' विविध तीर्थ कल्प ' के अनुसार इस प्राचीन स्तूप का निर्माण कुबेरा यक्षी द्वारा भगवान सुपार्श्वनाथ के सम्मान में कराया गया।कालांतर में 23 वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के समय में इस स्तूप पर ईटों का खोल चढ़ाया गया।महावीर के तेरह सौ वर्ष बाद बप्प भट्टि ने इसका पूरा संस्कार कराया।यहाँ से प्राप्त गुप्तकालीन प्रतिमाएं उसी समय की ज्ञात होती हैं।संभवतः एक से अधिक बार स्तूप का संस्कार हुआ।मूल स्तूप मिट्टी का रहा होगा जिसके भीतर स्वर्ण एवं रत्नों का और भी छोटा स्तूप गर्भित किया गया होगा।वह मिट्टी का स्तूप ईटों से और बाद में पत्थरों से आच्छादित किया गया।तीसरे संस्कार के अवसर पर स्तूप को दूार-तोरण ,वेदिका स्तंभ ,पुष्प मंचिका आदि से सुसज्जित किया गया।



प्राचीन मथुरा की खोज - 7

प्राचीन मथुरा की खोज - 7
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मथुरा प्रथम शताब्दी ईस्वी में एक बौद्ध तीर्थ के रूप में विकसित हो चुका था।नगर की यह स्थिति आगे आने वाली कई शताब्दियों तक ऐसी ही बनी रही,हालांकि कुषाण साम्राज्य के पतन के साथ ही मथुरा में बौद्ध धर्म की उन्नति चरम शिखर पर पहुंच कर धीरे धीरे घटने लगी थी।इस युग के बहुत बाद चौथी शताब्दी में चीनी यात्री फाहियान और उसके बाद सात वीं शताब्दी के प्रारम्भ में ह्वेनसांग मथुरा आया।इन दोनों प्रसिद्ध चीनी यात्रियों ने मथुरा की यात्रा बौद्ध तीर्थ के रूप में की थी ।
इन के यात्रा वृत्त तत्कालीन मथुरा नगर में बौद्ध धर्म की स्थिति को समझने के लिए मूल्यवान सूचनाएँ देते हैं।फाहियान ने मथुरा के बीस बौद्ध विहारों का उल्लेख किया है जो नगर के विविध स्थानों पर स्थित थे।ह्वेनसांग भी बौद्ध विहारों की संख्या बीस ही बतलाता है।
आप को यह जानकर सुखद आश्चर्य होगा कि अब तक मथुरा के पुरातात्त्विक उत्खननों में लगभग बीस ही बौद्ध विहारों की पहचान हो सकी है।यह संभव हुआ मथुरा और उसके आसपास के क्षेत्रों से उत्खनन में प्राप्त शिलालेखों एवं मूर्तियों के पाटों पर उत्कीर्ण अभिलेखों के आधार पर। इस से चीनी यात्रियों के मथुरा सम्बन्धी विवरण प्रामाणिक सिद्ध होते हैं। मथुरा के विभिन्न स्थानों से प्राप्त शिलालेखों और अभिलिखित मूर्तियों से यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि जिस विहार का नाम जिस शिलालेख या अभिलिखित मूर्ति से प्राप्त होता है,संभवतः उस विहार के नष्ट हो जाने पर वह मूर्ति या शिलालेख वहीं पड़ा रहा होगा।इस लिए आज हम इन मूर्तियों और शिलालेखों के प्राप्ति स्थानों को आधार बनाकर मथुरा में उन स्थानों की पहचान कर सकते हैं, जहाँ कभी यह बौद्ध विहार स्थित थे।हम इस तालिका के माध्यम से इसे समझने का प्रयास कर सकते हैं -
यशाविहार -कटरा श्रीकृष्ण जन्म स्थान,मथुरा
हुविष्कविहार-कचहरी,मथुरा
रौशिक विहार -अड़िंग,मथुरा
आपानक विहार -भरतपुर गेट,मथुरा
खंड विहार -महोली ,मथुरा
प्रावारक विहार -महोली,मथुरा
कोष्टुकीय विहार -कंसखार के पास,मथुरा
चूतक विहार - माता गली,मथुरा
सुवर्णकार विहार - यमुना बाग,सदर,मथुरा
श्री विहार -गऊघाट,मथुरा
अमोहस्सी विहार -श्रीकृष्ण जन्म स्थान,मथुरा
मधुरावण विहार -चौबारा टीला,मथुरा
श्रीकुंड विहार -कचहरी,मथुरा
धर्महस्तिक विहार -नौगाँव,मथुरा
महासंघि को का विहार -पालिखेड़ा,गोवर्धन,मथुरा
पुष्यदत्ता विहार -सोंख,मथुरा
लघ्यस्क्क विहार -मंडी रामदास,मथुरा
धर्मक पत्नी की चैत्य कुटी -मथुरा जंगशन
उत्तर हारुष विहार -आन्यौर,गोवर्धन,मथुरा
गुह विहार -सप्तॠषि टीला,मथुरा
यह तालिका आज भी हमें उस कल्पना लोक में ले जाती है,जहाँ हम मथुरा को एक बौद्ध तीर्थ के रूप में सजीव होता देख सकते हैं।
ह्वेनसांग अपने विवरण में सम्राट अशोक के द्वारा निर्मित मथुरा के तीन स्तूपों का भी वर्णन करता है,हालांकि अभी तक इन की पहचान नहीं हो सकी है,पर इस से यह स्पष्ट समझा जा सकता है कि सात वीं शताब्दी के प्रारंभ तक मथुरा नगर में मौर्यकालीन बौद्ध ढ़ाँचे मौजूद थे।ह्वेनसांग बीस ली अथवा चार मील की परिधि में स्थित मथुरा नगर की चर्चा करता है।किन्तु उसने यहाँ उस समय पाँच देव मन्दिरों को भी देखा था।जो एक महत्वपूर्ण तथ्य है।यदि फाहियान और ह्वेनसांग के मथुरा सम्बन्धी विवरणों को तुलनात्मक रूप में देखा जाए तो,हम पाते हैं कि फाहियान मथुरा के बीस बौद्ध विहारों में लगभग तीन हजार भिक्षुओं के निवास करने का उल्लेख करता है,जब कि ह्वेनसांग विहारों की संख्या तो बीस ही बतलाता है,लेकिन इन में केवल दो हजार भिक्षुओं के निवास करने की जानकारी देता है।यह अन्तर मथुरा में बौद्ध धर्म की शनैः शनैः होती अवनति की ओर संकेत करता है।पतन की यह प्रक्रिया आनेवाले समय में और अधिक तीव्र हुई होगी।
मैं अनुभव करता हूँ कि 10 वीं शताब्दी तक आते आते मथुरा में बौद्ध धर्म पूरी तरह से अतीत की स्मृति बन चुका था। हमें याद रखना होगा कि 11 वी शताब्दी के प्रारंभ में भारत आया विद्वान यात्री अलबरुनी मथुरा को श्रीकृष्ण के जन्म स्थान के रूप में याद करता है,न कि एक बौद्ध तीर्थ के रूप में।