Sunday 9 April 2017

प्राचीन मथुरा की खोज - 9

प्राचीन मथुरा की खोज - 9
---------------------------------------------------मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त प्रतिमाएं केवल जैन धर्म के लिए ही नहीं,वह भारतीय कला के लिए भी अनमोल निधि हैं ।मथुरा कला के विकास क्रम को समझने में यह मूर्तियाँ हमारी अत्यंत सहायक हैं ।इन में मथुरा कला की कुषाणकालीन विकासोन्मुखता तथा गुप्त युगीन मथुरा कला के पूर्ण विकसित सौष्ठव को भी देखा जा सकता है।ऐतिहासिक अध्ययन की दृष्टि से भी यह मूर्तियाँ कम मूल्यवान नहीं हैं, क्यों कि इन में से अधिकांश के पाटों पर अभिलेख उत्कीर्ण हैं जिनमें संवत्,माह ,ॠतु ,दिवस आदि दिये गये हैं।इन अभिलेखों से तत्कालीन मथुरा की जैन संघ पर बहुत अच्छा प्रकाश पड़ता है।गच्छ ,पुर और शाखाओं के जो नाम अभिलेखों में लिखे हैं,वे ही भद्रबाहु के कल्पसूत्र में आये हैं।पुरातत्व और जैन साहित्य का यह संगम अद्भुत है।
कंकाली टीले के उत्खनन से पत्थर की कुछ चौकियाँ मिलीं हैं जिन्हें 'आयाग पट्ट 'कहा जाता है।इन में शुभ चिह्नों का अंकन है।कहीं कहीं बीच में जिन आकृतियाँ बनीं रहती हैं। इन्हें तीर्थंकरों की स्मृति में पूजा के निमित्त स्थापित किया जाता था।ये उस संक्रमण काल के हैं जब प्रतीकों की उपासना प्रचलित थी और मानवाकृति के रूप में महापुरुषों की मूर्तियों का निर्माण प्रारंभ हो रहा था।इन्हें हम प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व तथा पहली शती ईस्वी के मध्य का मान सकते हैं।इन में प्रायः अष्ट मांगलिक चिह्नों जैसे मीन मिथुन, त्रिरत्न ,चैत्य वृक्ष,सराव सम्पुट ,भद्रासन ,श्रीवत्स और मंगल कलश आदि उत्कीर्ण किये जाते थे।
आयाग पट्टों में उकेरी छोटी जिन मूर्तियों का स्वतंत्र विकास तीर्थंकर प्रतिमाओं के रूप में हुआ ।यह दो मुद्राओं में मिली हैं ।पहली ध्यान भाव में आसीन और दूसरी कैवल्य की प्राप्ति के लिए दण्डवत खड़ी ।युवा सुन्दर शरीर,वक्ष पर श्रीवत्स,आजानुबाहु और प्रशांत भाव प्रमुख लक्षण हैं।
कंकाली टीले से प्राप्त यदि दिगम्बर मूर्तियाँ अधिक संख्या में हैं,तो श्वेतांबर प्रतिमाओं का भी सर्वथा अभाव नहीं है जिस से हम कह सकते हैं कि कंकाली का स्तूप जैनियों की दोनों शाखाओं में समान रूप से मान्य रहा ।
जैन आगमों को लिपिबद्ध करने के लिए प्रसिद्ध सरस्वती आन्दोलन का सूत्रपात मथुरा से ही हुआ था,जो धीरे धीरे संपूर्ण भारत में फैल गया।इस के परिणामस्वरूप प्रथम शताब्दी ईस्वी से ही जैन ग्रंथों का प्रणयन आरंभ हो गया था और अब जैन साहित्य का विपुल भण्डार उपलब्ध है।जैन ग्रंथों से ज्ञात होता है कि चौथी शताब्दी में साहित्य को सुव्यवस्थित करने के लिए आर्य स्कंदिल की अध्यक्षता में यहाँ एक सभा हुई थी जिसे' माथुरी वाचना' कहा जाता है।
यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि सरस्वती की प्राचीनतम मूर्ति कंकाली टीले से ही प्राप्त हुई है जिसमें देवी बाएँ हाथ में पुस्तक लिए है और दाहिना हाथ अभय मुद्रा में ऊपर उठा है।मूर्ति के पाट पर उत्कीर्ण अभिलेख में इसे सरस्वती की प्रतिमा ही बतलाया गया है।हम समझ सकते हैं कि मथुरा से आरंभ सरस्वती आन्दोलन को और अधिक गति देने के लिए ऐसी प्रतिमाएँ बनीं होंगी।
इस के अलावा कंकाली टीले के उत्खनन से शुंगकालीन बलराम तथा कुषाणकालीन सूर्य व कार्तिकेय की सुन्दर मूर्तियाँ भी प्राप्त हुई हैं।
यह निश्चित है कि मथुरा में श्रीकृष्ण जन्म स्थान के अलावा कंकाली ही वह स्थान है जिसका धार्मिक महत्व इतने लंबे समय तक बना रहा।
मथुरा में बौद्ध धर्म की तुलना में जैन धर्म कुछ अधिक समय तक सक्रिय रहा।कंकाली टीले से प्राप्त अवशेषों के विश्लेषण से यह ज्ञात होता है कि वह 12 वीं शताब्दी तक आबाद था,हालांकि 14 वीं शताब्दी में जिनप्रभसूरि कृत विविध तीर्थ कल्प में मथुरा के देव निर्मित इस स्तूप का उल्लेख मिलता है ,पर हम ठीक से कुछ नहीं कह सकते हैं कि आचार्य जिनप्रभसूरि ने इस स्तूप को स्वयं प्रत्यक्ष देखा था या नहीं।हो सकता है कि उन्होंने पुरानी जैन मान्यताओं के आधार पर इस का उल्लेख किया हो।
हम देखते हैं कि मथुरा में मध्यकाल की प्रारंभिक शताब्दियों तक आते -आते जैन और बौद्ध धर्मों का प्रभाव पूरी तरह समाप्त हो गया जिसके चलते कंकाली तथा मथुरा के अनेक बौद्ध धर्म संबंधी स्थान टीलों के रूप में बदल गये।
मैं अनुभव करता हूँ कि एक लम्बे समय से मथुरा में चली आ रहीं जैन और बौद्ध परंपराएँ एकदम लुप्त ही हो गईं और हालात यहाँ तक आ पहुँचे कि यदि ब्रिटिश काल में इन टीलों का पुरातात्त्विक उत्खनन नहीं होता ,तो हम कभी जान ही नहीं पाते कि प्राचीन मथुरा में जैन और बौद्ध धर्म की स्थिति क्या थी ।

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