Wednesday 29 March 2017

प्राचीन मथुरा की खोज - 6

प्राचीन मथुरा की खोज - 6
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प्राचीन मथुरा नगर को समझने के लिए बौद्ध संदर्भों की चर्चा करना आवश्यक है।
बुद्ध के का ल में मथुरा एक प्रतिष्ठित नगर था।बौद्ध साहित्य से पता चलता है कि प्रारंभ में यहाँ के लोगों द्वारा बुद्ध का विरोध किया गया।भगवान बुद्ध जब मथुरा आये तो यहाँ के लोगों ने उनका कोई उचित सम्मान नहीं किया।स्वयं बुद्ध के द्वारा मथुरा के संबंध में दिये गये उपदेश से यह स्पष्ट होता है।बुद्ध ने मथुरा के पाँच दोष गिनाते हुए कहा है - 
भिक्षुओं! यहाँ के मार्ग विषम हैं,धूल बहुत उड़ती है,कुत्ते बड़े भयंकर हैं,अज्ञानी यक्ष हैं और भिक्षा मुश्किल से मिलती है।' 
हम यह समझ सकते हैं कि भागवत धर्म जिसे आज हम वैष्णव धर्म के रूप में पहचानते हैं,की मूल उद्भव भूमि पर बुद्ध की विराग और शून्य की बातों को कौन सुनता। वास्तव में मथुरा नगर का बौद्ध संस्कार प्रारंभ होता है प्रसिद्ध आचार्य उपगुप्त के समय से,जिन के संबंध में एक अनुश्रुति है कि उन्होंने ही सम्राट अशोक को बौद्ध धर्म की शिक्षा दी थी।बौद्ध ग्रंथ 'दिव्यावदान' के अनुसार उपगुप्त मथुरा के निवासी थे।उनके रूप और शील पर मथुरा की नगर गणिका वासवदत्ता मोहित हो गई थी।इस का रोचक वर्णन दिव्यावदान में मिलता है।
उस समय मथुरा बौद्ध धर्म की सर्वासि्तवाद परम्परा का प्रधान केंद्र बनकर उभरने लगा।सम्राट अशोक के काल से लेकर कुषाण सम्राट कनिष्क के काल तक मथुरा की भूमि पर बौद्ध धर्म अत्यंत फला फूला।
सही मायने में यह काल मथुरा के ' नवनिर्माण 'का युग है जब मथुरा के शिल्पी कठोर पाषाण खंडों को तराशकर विशाल विहारों और स्तूपों के रूप में एक नये नगर को आकार दे रहे थे।इस नव संस्कारित होते मथुरा नगर के सामने मैं अनुभव करता हूँ कि तब पुराने मथुरा की पहचान कहीं खो सी गई होगी।इसी वातावरण में मथुरा के कलाकारों द्वारा मूर्ति शिल्प की एक विशिष्ट शैली विकसित की, जो मथुरा कला के रूप में प्रसिद्ध है।कुषाण सम्राटों के संरक्षण में सर्वप्रथम मथुरा के कलाकारों ने बुद्ध की उपास्य मूर्तियों का निर्माण किया।इस से पूर्व कला में बुद्ध के केवल प्रतीकों जैसे स्तूप,भिक्षापात्र ,बोधिवृक्ष आदि का ही अंकन होता था।भारतीय कला को मथुरा की यह सबसे बड़ी देन है।कुषाण और गुप्त काल में मथुरा के कलाकारों ने बुद्ध की सर्वोत्कृष्ट मूर्तियों का निर्माण किया जिनमें से कई आज भी राजकीय संग्रहालय,मथुरा में सुरक्षित हैं।इस काल की पुरा संपदा का विशाल भंडार संग्रहालय में देखा जा सकता है।इसी संग्रह में बुद्ध की वह प्रतिमा भी है जिसे विश्व की सबसे सुन्दरतम बुद्ध प्रतिमाओं में से एक माना जाता है।गुप्त काल में निर्मित इस मूर्ति को 'यशादिन्य ' नामक बौद्ध भिक्षु ने स्थापित किया था जिसे सन् 1860 में जमालपुर टीले ( मथुरा की वर्तमान कचहरी ) से उत्खनन में प्राप्त किया गया। इस प्रतिमा को लेकर मेरा स्वयं का भी अनुभव है।मैं जब भी मथुरा संग्रहालय में इस मूर्ति के सामने से गुजरता हूँ तो सदैव मेरे कदम ठिठक जाते हैं।कितनी शान्तिः की आभा है इस मूर्ति में! बुद्ध के मुख पर कितनी करुणा है!
श्रद्धा से प्रायः एक क्षण के लिए मेरी आँखें बंद हो जाती हैं। कहीं दूर से आते धम्म के शब्दों को मेरे कान मानो आज भी सुन रहे हों ।
मथुरा कला का इस से उत्कृष्ट उदाहरण आखिर और क्या हो सकता है।




Monday 27 March 2017

प्राचीन मथुरा की खोज - 5

प्राचीन मथुरा की खोज - 5
---------------------------------------------------प्राचीन मथुरा की नगर निर्माण योजना को समझने के लिए हम भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा सन् 1974-75 में श्री बी० के० धापड़ और श्री मुनीश चन्द्र जोशी के निर्देशन में कराये गये उत्खनन को आधार बना सकते हैं।इस उत्खनन का मुख्य उद्देश्य था प्राचीन मथुरा नगर की चार दीवारी को खोजना।अत: इस परियोजना के अंतर्गत मथुरा नगर के लगभग 14 अलग -अलग स्थानों जैसे कंकाली ,चामुंडा,महाविद्या ,हाथी टीला तथा अम्बरीष टीले आदि पर उत्खनन का कार्य किया गया जिससे यह निर्धारित हुआ कि प्राचीन मथुरा नगर चारों ओर से एक मिट्टी की दीवार (धूल कोट ) से घिरा हुआ था।इस दीवार के अवशेष अनेक छोटे बड़े टीलों के रूप में बचे थे।टीलों की यह श्रृंखला मथुरा के गौकर्णेश्वर से प्रारंभ होकर मसानी,चामुंडा,महाविद्या ,कटरा केशव देव (श्रीकृष्ण जन्म स्थान) के पीछे से होती हुई कंकाली टीला,कंस का टीला एवं सप्तॠषि टीले से यमुना के किनारे तक चली जाती है।ऐसी दीवार यमुना की ओर भी रही होगी,लेकिन हम समझ सकते हैं कि प्रति वर्ष यमुना में आने वाली बाड़ ने उसे बहुत पहले ही तबाह कर दिया होगा।उत्खनन से यह ज्ञात हुआ कि इस श्रृंखला के टीले प्राकृतिक नहीं हैं,बल्कि मानव निर्मित हैं।इस दीवार के आसपास की गई खुदाइयों में छठी शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर छठी शताब्दी ईस्वी तक की पुरातात्त्विक सामग्री प्राप्त हुई जिसके विश्लेषण से यह निश्चित होता है कि मथुरा नगर प्रथम शताब्दी के लगभग कुषाण काल में उन्नति के चरम शिखर पर था।




इन टीलों की मिट्टी की जांच से यह भी पुष्ट हुआ कि नगर की दीवार के आसपास खाइयाँ भी रही होंगी। भागवत आदि पुराण ग्रंथों में भी मथुरा का वर्णन एक चार दीवारी युक्त नगर के रूप में में किया गया है।इस दीवार की समय समय पर मरम्मत भी की गई थी,इस के प्रमाण भी प्राप्त हुए हैं।नगरों की ऐसी दीवालों का निर्माण प्रायः शत्रुओं से रक्षा एवं बाड़ के पानी को नगर में प्रवेश करने से रोकने के लिए किया जाता था।
जब मैं प्राचीन मथुरा नगर की दीवार धूल कोट को समझने का प्रयास कर रहा था,तभी मुझे एकाएक मथुरा की परिक्रमा का स्मरण आया जो स्थानीय लोगों एवं श्रद्धालुओं के द्वारा प्रतिवर्ष कार्तिक मास में अक्षय नवमी तथा देवोत्थान एकादशी के अवसर पर की जाती है। मैं यह देखकर अत्यंत आश्चर्यचकित हूँ कि प्राचीन मथुरा नगर की दीवार धूलकोट के टीलों की श्रृंखला का क्रम और प्रति वर्ष लगाई जाने वाली मथुरा की परिक्रमा का पथ लगभग एक ही है ।
मैंने स्वयं अपने बचपन के दिनों में मथुरा की यह परिक्रमा कई बार दी है।हमेशा से जिज्ञासु रहा मेरा मन तब इस उलझन में रहता था कि मथुरा शहर तो होली गेट के अन्दर है, फिर हम इन निर्जन टीलों की इतनी लम्बी परिक्रमा क्यों कर रहे हैं,किन्तु आज उलझन सुलझने लगी है। मथुरा भले ही मध्यकाल में यमुना नदी के किनारे -किनारे सिमटकर रह गया हो,परन्तु लोक की स्मृति में प्राचीन मथुरा नगर की सीमाएँ , जिन का निर्माण हज़ारों वर्ष पूर्व हुआ था,जीवित हैं मथुरा के परिक्रमा पथ के रूप में।मैं लोक की इस स्मृति पर मुग्ध हूँ।
( शेष अगली किस्तों में )

Saturday 25 March 2017

प्राचीन मथुरा की खोज - 4

प्राचीन मथुरा की खोज - 4
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जब हम प्राचीन मथुरा के पुरातात्त्विक साक्ष्यों की बात कर रहे हैं,तब मैं आप का ध्यान एक अत्यंत महत्वपूर्ण
पुरातात्त्विक साक्ष्य की ओर आकर्षित करना चाहता हूँ जिस की ओर अभी तक अध्येताओं और विद्वानों ने पर्याप्त ध्यान नहीं दिया है। भारत के सबसे प्राचीनतम सिक्के चाँदी के 'आहत '( पंच मार्क )सिक्के माने जाते हैं,जो प्रायः छठी -पाँच वीं शताब्दी ईसा पूर्व प्रचलन में थे।इन सिक्कों में से कुछ में विशिष्ट चिह्नों के आधार पर प्रसिद्ध मुद्राविद् श्रीपरमेश्वरी लाल गुप्त ने यह निर्धारित किया कि यह सिक्के मथुरा ( शूरसेन जनपद ) ने प्रचलित किये थे जिन्हें हम आज मथुरा के प्राचीनतम मुद्रा मान सकते हैं, क्योंकि इस प्रकार के चिन्ह वाले सिक्कों की निधियां केवल मथुरा और उसके आसपास के क्षेत्रों से ही प्राप्त हुईं हैं।
सौंख के एक टीले से भी इस प्रकार के सिक्कों की निधि प्राप्त हुई थी जिसके कुछ सिक्के राजकीय संग्रहालय,मथुरा के संग्रह में हैं ।इस क्षेत्र के अतिरिक्त यह सिक्के उज्जयिनी और पद्मावती के आसपास भी पाए गए हैं।इस प्रकार के 22 सिक्के ब्रिटिश संग्रहालय में भी हैं जहां वे कनिंगहम और ह्वाइटहेड के संग्रहों से प्राप्त हुए हैं।उनमें से एक का प्राप्ति स्थान मथुरा अंकित है।ग्वालियर संग्रहालय में भी इस तरह के चार सिक्के हैं,जो संभवतः प्राचीन पद्मावती से मिले थे।
मुझे भी मथुरा के श्रीदिनेश सोनी ने इस प्रकार का एक सिक्का भेंट किया था,जो अब ॿज संस्कृति शोध संस्थान,
वृन्दावन में संरक्षित है।
यह सिक्के मथुरा की पाँच वीं छठी शताब्दी ईसा पूर्व में निरन्तर तीव्र होतीं आर्थिक गतिविधियों की ओर संकेत करते हैं और तत्कालीन भारत में मथुरा के राजनैतिक प्रभुत्व को भी प्रदर्शित करते हैं। उज्जयिनी और पद्मावती में यह सिक्के निश्चित ही व्यापारियों के माध्यम से पहुंचे होंगे।आज आवश्यकता है कि सर्वेक्षण कर ऐसे स्थानों का सूचीकरण किया जाए जहाँ से इस प्रकार के सिक्के प्राप्त हुए हैं।तब हम प्राचीन मथुरा से चलने वाली व्यापारिक गतिविधियों को और अधिक व्यापक स्तर पर समझ सकेंगे।

Tuesday 21 March 2017

प्राचीन मथुरा की खोज -3

प्राचीन मथुरा की खोज -3
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पुरातात्त्विक साक्ष्यों के प्रकाश में हम प्राचीन मथुरा के नगर विस्तार पर कुछ चर्चा कर सकते हैं।मथुरा ने नगर का रूप कब ग्रहण किया।इस प्रश्न के उत्तर में हमारे पास लगभग छठी शताब्दी ईसा पूर्व तक के पुरातात्त्विक साक्ष्य उपलब्ध हैं,इस से यह सिद्ध नहीं होता है कि मथुरा का अस्तित्व छठी शताब्दी ईसा पूर्व से पहले नहीं था। यदि हम पौराणिक संदर्भों में मथुरा को खोजते हैं तो इस नगर का सर्वप्रथम उल्लेख बाल्मीकी रामयण के उत्तर कांड में प्राप्त होता है। 'मधु' नामक दैत्य के नाम पर नगर का नाम मधुपुर या 'मधुपुरी' कहलाया।इस के आसपास का घना जंगल 'मधुवन' कहलाने लगा।मधु और उसके पुत्र लवण की कथा का वर्णन रामायण के अलावा अन्य पुराणों में भी मिलता है।श्रीराम के छोटे भाई शत्रुघ्न ने लवण का वध कर मथुरा पर अपना राज्य स्थापित किया।
रामायण में मथुरा को देवताओं के द्वारा निर्मित पुरी कहा गया है -
'इयं मधुपुरी रम्या मधुरा देव निर्माता ' आज इस मधुवन का अस्तित्व मथुरा के निकट 'महोली' नामक गांव के रूप में बचा है।ब्रज के प्रमुख वनों में मधुवन का नाम आता है। प्रति वर्ष वैष्णव भक्तों द्वारा किये जाने वाली ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा में एक पड़ाव महोली 'मधुवन'में होता है,जहाँ के दर्शन कर तीर्थ यात्री अपने आप को धन्य मानते हैं। महोली गांव से पुरातात्त्विक सामग्री भी उपलब्ध हुई है जिससे इस स्थान की प्राचीनता प्रमाणित होती है।
हमारे लिए यह समझना भी काफ़ी दिलचस्प होगा कि महोली का महत्व मध्यकाल तक बना रहा।अकबर के समय में मथुरा और महोली आगरा सरकार के अंतर्गत दो स्वतंत्र परगने थे।आइन ए अकबरी से ज्ञात होता है कि मथुरा के मुकाबले महोली परगने में भूमि अधिक थी और राजस्व भी अधिक प्राप्त होता था।

Wednesday 1 March 2017

प्राचीन मथुरा की खोज -1

प्राचीन मथुरा की खोज -1
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मथुरा,श्रीकृष्ण का जन्म स्थान।भारत के महान प्राचीन नगरों में से एक।सप्त मोक्षदायनी पूरियों में से एक । इस नगर के वैभव का वर्णन केवल हिन्दू ग्रंथों में ही नहीं वरन् बौद्ध एवं जैन साहित्य में भी मिलता है। पत्थर की मूर्तियों के निर्माण की विश्व प्रसिद्ध ' मथुरा शैली ' यहीं की देन है।आज विश्व का शायद ही कोई प्रसिद्ध संग्रहालय हो,जहाँ मथुरा शैली की मूर्तियां सुशोभित न हों ।
मथुरा प्राचीन भारत के महत्वपूर्ण व्यापारिक राजमार्ग पर स्थित था।तब मध्य एशिया से सुदूर दक्षिण में समुद्र तट तक जाने वाला मार्ग यहाँ से होकर गुजरता था।प्राचीन भारत के 'शूरसैन' जनपद की राजधानी 'मथुरा ' क्षेत्रफल की दृष्टि से एक विशाल नगर रहा होगा। क्यों कि प्राचीन भारत में आये यूनानी,चीनी,अरबी यात्रियों ने अपने यात्रा वृत्तों में इस नगर का आँखों देखा वैभव दर्ज किया है। किन्तु जब हम मध्यकालीन मथुरा के नगर विस्तार को देखते हैं तो वह यमुना के किनारे -किनारे फैला अत्यंत छोटा एक हिन्दू तीर्थ नगर के रूप में दिखाई देता है जिस का प्रवेश द्वार ' होली गेट 'था जिसे ब्रिटिश साम्राज्य में बनाया गया था। हम देख सकते हैं कि मध्यकाल से लेकर भारत की स्वतंत्रता से पूर्व तक मथुरा एक छोटा नगर ही था। वह निश्चित रूप से वह मथुरा नगर नहीं था जिसका वर्णन यूनानी,चीनीऔर अरबी यात्रियों ने किया है। यदि हम मध्यकालीन मथुरा नगर को देखें तो वह छोटे बड़े अनेक टीलों पर वसा है।नगर के अन्दर और बाहर के क्षेत्रों में भी कई टीले स्थित हैं जिनमें से कई के नाम तो पौराणिक पात्रों के नामों पर हैं।जैसे नारद टीला,ध्रुव टीला,सप्तॠषि टीला ,नाग टीला ,अम्बरीष टीला,गणेश टीला आदि।नगर के पास ही कंकाली टीला, कटरा,महाविद्या ,सौंख,महोली आदि के टीले भी हैं। वास्तव में यह साधारण मिट्टी के टीले भर नहीं हैं। यह उस महान नगर के ध्वंसावशेष हैं जो एक विस्तृत क्षेत्र फल में फैला हुआ था और उस प्राचीन मथुरा नगर की वैभवशाली पुरातात्त्विक सम्पदा के खजाने हैं जिसे हज़ारों वर्ष पहले यूनानी,चीनी तथा अरबी यात्रियों ने अपनी आँखों से देखा था।
(शेष अगली किस्तों में )