Sunday 9 April 2017

प्राचीन मथुरा की खोज - 11

प्राचीन मथुरा की खोज - 11
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हम प्राचीन मथुरा की इस खोज यात्रा में अब उस पड़ाव पर आ पहुँचे हैं कि जब उस धर्म की चर्चा की जाये जिसके कारण मथुरा की प्रसिद्धि विश्व पटल पर पहुँच गई।
मथुरा की सबसे बड़ी देन है भागवत धर्म ( वैष्णव धर्म )जिस का उद्भव इसी भूमि पर हुआ ।इस के केंद्र में हैं श्रीकृष्ण,जिन्होंने मानो पूरे विश्व का मन मोह लिया ।
मथुरा में मौर्य -शुंगकाल की भागवत धर्म संबंधी मूर्तियाँ प्राप्त हुईं हैं और ईसा पूर्व पहली दूसरी शताब्दियों की मथुरा से प्राप्त अभिलेखीय सामग्री से भी भागवत धर्म की तत्कालीन स्थिति पर महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है,पर यह पुरातात्त्विक सामग्री भागवत धर्म के प्रारंभिक प्रमाण नहीं हैं,बल्कि यह साक्ष्य तो पूर्व काल से चली आ रही एक सुदीर्घ परम्परा का विकसित तथा व्यवस्थित स्वरूप प्रस्तुत करते हैं ।
वास्तव में इस काल से बहुत पहले ही भागवत धर्म मथुरा व ब्रजमंडल की सीमाओं से निकल कर संपूर्ण भारत में फैल चुका था।संभवतः यह तब हुआ होगा जब वैदिक देवता विष्णु का स्वतंत्र अस्तित्व ही वासुदेव श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व में विलीन हो गया जिसे हम ' भगवत गीता ' में समझ सकते हैं।महाभारत के शान्ति पर्व में ' नारायणीयोपाख्यान ' के अंतर्गत भी भागवत धर्म का सुन्दर विवेचन किया गया है।
संस्कृत के प्रसिद्ध ग्रंथ पाणिनीय कृत ' अष्टाध्यायी ' के व्याकरण सूत्रों से भी यह ज्ञात होता है कि वासुदेव श्रीकृष्ण की पूजा तत्कालीन भारतीय समाज में प्रचलित थी।पाणिनि का समय ईसा पूर्व पाँचवी शताब्दी के लगभग माना जाता है।
भागवत धर्म का उदय और फैलाव अपने समय की निश्चित ही एक बड़ी धार्मिक क्रान्ति थी।जिस का व्यापक प्रभाव भारतीय समाज पर ही नहीं,वरन् अनेक विदेशी जातियों पर भी पड़ा।भागवत महापुराण का श्लोक है -
किरात-हूणान्ध्र पुलिन्द पुलकसा: ।
आभीर कंका यवना: खसादय : ।।
ये न्येत्र पापा: यदुपाश्रयाश्रया : ।
शुध्यन्ति तस्यै प्रभविष्णवे नम: ।।
आप के लिए यह जानना अत्यंत रोचक होगा कि इस श्लोक के भाव की पुष्टि पुरातात्त्विक साक्ष्यों से होती है।
मध्य प्रदेश के विदिशा नगर की गणना भारत के प्रमुख प्राचीन सांस्कृतिक नगरों में की जाती है।ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में वहाँ वासुदेव श्रीकृष्ण का मन्दिर विद्यमान था।शुंग शासकों के राज्य काल में ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में इस मंदिर के सामने एक ऊँचा गरुड़ स्तंभ बनवाया गया।इस स्तंभ पर उत्कीर्ण ब्राह्मी अभिलेख से पता चलता है कि उसे तक्षशिला के यूनानी राजा ऐंटियल्काइडीज ( अंतलिकिदिस ) के राजदूत हेलियोदोर ने स्थापित किया था। हेलियोदोर ने अपने लेख के प्रारंभ में देवताओं के देव वासुदेव का नाम दिया है,जिन के प्रति भक्ति भाव प्रदर्शित करने के लिए उसने गरुड़ स्तंभ स्थापित किया।हेलियोदोर ने अभिलेख में स्वयं अपने को ' भागवत ' ( भागवत धर्म का अनुयायी) कहा है।
भागवत धर्म ने अनेक विदेशियों को प्रभावित किया और वह भारत की सीमाओं से बाहर जाकर भी फैला।
बाख्त्री -यवन शासक अगुथक्लेय जिस का समय ईसा पूर्व तीसरी सदी के लगभग माना जाता है,के कुछ चाँदी के सिक्के अफगानिस्तान की अइ खानुम नामक जगह से प्राप्त हुए हैं जिन पर एक ओर चक्रधारी और दूसरी ओर हल तथा मूसल लिए आकृतियाँ अंकित हैं।उन्हें सहज रूप से क्रमशः वासुदेव श्रीकृष्ण और संकर्षण बलराम के रूप में पहचाना जा सकता है।
श्रीकृष्ण और बलराम पहले ऐसे भारतीय देवता हैं जिनकी छवि किसी विदेशी यवन शासक ने अपने सिक्कों पर अंकित की।
आप जरा कल्पना कीजिए कि उस दौर में भागवत धर्म की लोक प्रियता का स्तर कितना ऊँचा रहा होगा।




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